मेरी दो कविताएँ

तहखाना 

 एक तहखाना है, 

मेरे मन में 

जिसमें दफनाया है मैंने 

अपने बहुत से ज्जबात

और, बहुत सी अपनी 

और अपनी दुनिया में आये लोगों की 

कही अनकही बातों को 

उसी तहखाने में दफन हैं 

मेरी बहुत सी छोटी-बडी ख्वाहिशें, 

जो हमेशा मेरे मन में उठतीं गिरतीं रहतीं हैं 

ठीक उसी तरह जैसे समन्दर में 

लहरें उठती-गिरतीं हैं.

थकान

थककर चूर होने पर भी 

अपने बदन को सम्भालना 

और फिर 

एक हाथ से दूसरे हाथ के दर्द को दबाना 

खुद से खुद की मरम्मत करना 

तपती धूप में चमकते सिर के लिए, 

उसी धूप में झूंडू बाम लाना 

उम्मीदों से टूटना और टूटते ही जाना 

नियत्ति हो चली हो जिनकी 

उन्हें फर्क नहीं पड़ता 

और वो हो जाते हैं 

मशीन से, लोहा से 

और फिर होते हैं 

बेतहाशा मजबूत  

अपने तन और मन से.

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *