अपभ्रंश चूंकि संस्कृत के क्रमिक विकास ( संस्कृत – पालि – प्राकृत – अपभ्रंश) से निष्पन्न भाषा है, इसलिए उसकी व्याकरणिक विशेषताओ का आकलन प्राकृत, पालि सर्व संस्कृत की तुलना में ही किया जा सकता है। परिनिष्ठित अपभ्रंश का मूल आधार पश्चिमी देशों की बाली थी और ऐतिहासिक दुनिया शौरसेनी प्राकृत की परम्परा में थी। इसतिर ६ निदान इसे शौरसेनी और
परिचमी अगलंय कहते हैं। हेमचंद्र ने अपने प्राकृत व्याकरण में अपभ्रंशा की व्याकरलस चूकने के बाद अन्त में और सेनीनत्’ लिखकर इस ता की और संकेत दिया है। जाहिर है कि यह याश्चिमी भारत की बोली थी, किन्तू सही से १० शताब्दी तक समूचे उत्तर भारत की साहित्विक भाषा होने का गौरव प्राप्त था। इसका काल ५० ई. से १०००ई तक माना।आता है। निस्सयत कहा (चन वाल), २७म चरित (स्वयंभू), महापुराण (पुष्पदंत) आदि अपभ्रंश की प्रमुख रचनाएं हैं।
विशेमनाएं
१. अपभ्रंश की लिपि-शैली (वर्तनी) में सर्वत्र शकरूपता नही है। असे – तृतीया और सप्तमी के नाम और बहुमान के लिए विभक्ति -चिल नही मिलता और की हि’। इसी तरह वही सकवचन और बहुननन में भी कही हैं’ है और कही ।
२. इ और य का विपर्यय तथा प्रायः ब को व एवं न को ण के रूप में लिखा जाता है
३. स्वर
लस्व – अ, इ , उ ,ए , ओं
दीर्घ – आ, ई, ऊ, ए, ओ और ऋ
अपभ्रंश की अनुलेखन पद्धति (orthography) पूर्णतया प्राकृत स्नं संस्कृत की अनुगामिनी रही। ए और ओं (ह्रस्व) जैसी नवीन ध्वनियों के लिए नवीन चिन्ह नहीं बनाए गए। उत्तर भारत में इनकी जगह, इ, उ का प्रयोग होता रहा।
४. क ख ग घ / च छ ज झ /ट ठ ड ढ ण / त थ द ध न / प फ ब भ म । य र ल व श (केवल पूर्ती अपभ्रंश), स, ह / अर्थात ङ ण एवं ष ध्वनियाँ अपभ्रंश में नहीं मिलती हैं।
५. स्तर – परिवर्तन सम्बन्धी विशेषताए
अपभ्रंश में संस्कृत शब्दों में आदि अक्षर के स्वर की कोई हानि नहीं हुई है क्योंकि स्वराघात प्रायः आदि अक्षर पर पड़ता है।
जैसे, (सं.) माणिक्य > (अप०) माणिकक ; (सं.) घोटक, – (अप.) घोडम ; (प्रा.) छाहा > (अप.) छाआ।
६. प्राकृत की तरह ही अन्य स्वर का या तो लोप हो गया है या ने हर्स्वीकृत हो गए हैं। जैसे, क्षेत्रित, खेत्री, पुस्तक, – पोथा ( अन्त्य स्वर अ का लोप), प्रिया> पिअ, संध्या >संझ (अनंत्य स्वर ह्र्स्वीकृत)
७. इ, उ, अ, आदि स्वर अनुनासिक हो जाते हैं। जैसे वक्र >बैंक पक्षिन – पंखि
८. कभी- कभी अनुनासिकता क्षतिपूर्ति के लिए आती है । जैसे स्वयम> सइँ।
९ (I) उपधा स्वर को अपभ्रंश में सुरक्षित रखने की प्रकृति है। जैसे, गोरचन > गोरोएण, अंधकार >अंधयार।
(ii) कहीं – कहीं उपधा स्वर में मात्रा मेद हो गया है। अ, बह्मचर्य > बम्मचार, गभीर > गुहिर।
व्यंजन परिवर्तन
१०. प्राकृत के द्वित्व व्यंजन में से ही एक का लोप तथा लुप्त व्यंजन के पूर्व के ह्रस्व स्वर के दीर्थ होने की प्रवृत्ति अपभ्रंश काल में प्रचलित हो गई थी। जैसे, (सं.) तस्य > प्रा. तस्स> अप. तासु / कर्म > कम्प > कामु/स्य कस्सु > का है।
११. स्वरमध्यम म् का व हो गया है तथा इसके साथ का संलग्न स्वर अनुनासिक हो गया है। यथा : कमल > कंवल/ कुमार> कुँवार
१२ अपभ्रंश के शब्दों में बहुधा अंतिम व्यंजन लुप्त हो जाते हैं। यदि कहीं वे लुप्त नहीं हुए तो अ उनके साथ जुड़कर उन्हें स्वरांत बना देता है। यथा : मनस् > मला , जगत् > जग , आयुष > आउस ।
१३. ड. द ६ न र के बदले ल देखा जाता है। जैसे प्रहीन > पलित, नवनीत> लोण, दरिद> दलिट्ट, तड़ाग > तलाउ ।
१४. प्राकृत की तरह ही अपभ्रंश में रलयोर भेदः, उलयोरवेद :, अल्प प्राणी – करण, महाप्राणीकरण, घोषीकरण, अघोषीकरण, समीकरण आदि नियमों , का बघावत् पालन हुआ है।
१५. व्यंजनों के कुछ प्रचलित परिवर्तन
ण >न्ह, ण्ह – कृष्ण, कान्ह
व > ब – बचन > बअण
क्ष> क्ख, च्छ = पक्षी > पक्खी, पच्छी
य > ज = युगल > जुगल
न > ण = निनिड > निनड
श > स = पश्यति > प्रस्सदि, शय्या >सेज्जा
शब्दरूप और धातुरूप में परिर्तन
१६ अपभ्रंश में शब्दरूप और धातुरूप बहुत ही कम हो गए है। गौर, जिससे उन्हे रटने से जान बची।
१७. वैदिक संस्कृत, संस्कृत, पालि एवं प्राकृत सन्यौगात्मक, भाषाएँ थी। प्राकृत में निचोगात्मकता के लक्षण दिखाई पड़ने लगे थे. किन्तु अपभ्रंश में आकर ये नक्षा प्रमुख हो गए।
१८. कारक, विभक्तियों के हास की जो प्रवृत्ति पालि से प्रारम्भ हुई थी वह अपभ्रंश में उत्तरोत्तर बड़ती गाई। अपभ्रंश में केवल तीन कारक – समूह हैं जो विभक्तियों के एकीकरण की प्रवृत्ति के प्रमाण हैं। यथा – कर्ता – कर्म – सम्बोधन (ii) करण – अधिकरण (iii ) सम्प्रदान – सम्बन्ध – अपादान । संस्कृत में कारकों के लिए एक शब्द के २१ रूप. प्राकृत में १२ स्नं अपभ्रंश में ६ रूप रह जाये गए।
१९. नपुंसक लिंग लुप्त हो गया। स्त्रीलिंग के रूप भी बहुत कम रह गए अर्थात पुल्लिंग रूप की प्रधानता हो गई।
२०. सम्प्रदान के रूप घिसकर सहज हो गए अर्थात सम्प्रदान के रूप अपभ्रंश में नहीं मिलते वाक्य में शब्दों का स्थान भी निश्चित हो गया।
२१ पूर्वकालिक क्रिया इ, इऊ , इति, अवि , एप्पि, एप्पिणु , एनि के योग से बनने लगी। जैसे जंडिव, लेवि, लेप्पीणु ।
२२. अपभ्रंश में भाषा निकासा प्रवृत्ति के कारण संयुक्त क्रियाएँ विकसित हुई।
२३. आत्मनेपद एवं परस्मैपद का भेद मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा प्रारम्भकाल से ही समाप्त होने लगा था। अपभ्रंश तक आते – आते वह लुप्त हो गया। गणभेदो की जटिलता भी अपभ्रंश काल तक समाप्त हो गई।
२४. कारकों के लिए परसर्ग – प्रयोग की बहुलता आई। क्रियापदों में – तिङन्त रूपों की जगह कृदन्त रूपों का प्रयौग बढ़ गया।
२५. द्विवचन लुप्त हो गया। इसके प्रकट करने के लिए संख्यावाचक विशेषण ‘दो’ का प्रयोग किया जाने लगा। यया – दुई धनु