भाषा और लिपि

भाषा के विभिन्न अवयवों में एक महत्वपूर्ण अवयव लिपि भी है। हम भाषा का अध्ययन अन्यान्य ढंग से तो करते हैं ,लेकिन भाषाओं और लिपियों के व्यापक संदर्भ को हम समझ नहीं पाते ।यह हमारी विडंबना ही कही जाएगी कि हम भाषा और लिपि के संबंधों को ठीक ढंग से व्याख्यायित नहीं कर पा रहे हैं ।भाषा  मूलतः वाचिक परंपरा में विकसित होती है और लिपि के माध्यम से उसे हम अपने आने वाली पीढ़ियों तक पहुंचाते हैं। इस दृष्टि से देखें तो लिपि  भाषा के संवहन का सशक्त माध्यम है। लिपियों द्वारा भाषाओं के भेद को व्यापक स्तर पर पाटा जा सकता है। भाषाओं में जो भेद आज देखने को मिलता है, वह उनकी लिपियों में भेद  के कारण होता है। ऐसी स्थिति में आगर अनुवाद के साथ-साथ लिप्यांतरण पर भी ध्यान दें, तो बहुत हद तक भाव संप्रेषण में सुगमता होगी । और भाषाई  एवं सांस्कृतिक खाई को कम किया जा सकेगा।

भविष्य में लिप्यंतरण को महत्व देकर हम भाषा संबंधी बहुत सी परेशानियों से निजात पाते हुए, भाषा को एक नए रूप में ढालने में समर्थ होंगे। भाषा अपने व्यवहार  में इकहरी है, लेकिन इसके बहुत व्यापक संदर्भ है जैसे संस्कृति ,अर्थ ,राजनीति और समाज एवं उसकी परम्पराएं। इन सभी को ध्यान में रखते हुए यदि हम भाषाओं को परस्पर एक धरातल पर लाने के लिए लिपियों की एकरूपता पर जोर देंगे, तो हम एक नए भाषा के संसार को निर्मित कर सकेंगे। एक ऐसा भाषा संसार जिसमें अनेक अनेक भाषाएं एक ही लिपि के माध्यम से लिखी जा सकेंगी इससे हम भाषा लेखन संबंधी जटिलताओं से मुक्त हो सकेंगे, और सहज ही भाषा प्रवाहमान होकर आम जन की सम्पत्ति हो सकेगी । हमें ऐसे भाषा संसार को निर्मित करने की आवश्यकता है जिसमें भेद की गुंजाइश ना हो ।और भाषा केवल संप्रेषण का माध्यम हो। 

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