मैं वह धनु हूँ-अज्ञेय

मैं वह धनु हूँ,

 जिसे साधने में प्रत्यंचा टूट गई है।

कथाकार ,कवि एवं गम्भीर चिन्तक अज्ञेय मेरे भाव जगत के बहुत निकट हैं। कारण तो मेरे अन्तर्यामी ही जानते होंगे। फिर भी बहुत कुछ हमारे जीवन का हमारे प्रारब्ध और ना जाने कितने जन्मों का संचित कर्म होता है, शायद मेरी इस बात से कम लोग ही इतेफाक रखते हों ,लेकिन मैं व्यक्तिगत रुप से यही मानता हूँ। हम अपने जीवन काल में बहुत से लोगों से मिलते जुलते हैं,लेकिन कुछ लोगों हम पहली दूसरी मुलाकात में ही जान जाते हैं कि इस व्यक्ति के साथ हमारी अच्छी निभेगी। ऐसी ही हमारी अज्ञेय जी के रचना संसार के साथ निभ रहा है। ना जाने क्यूँ अज्ञेय मुझे कुछ ज्यादा ही खींचते हैं अपनी ओर । 

स्खलित हुआ है बाण ,

यद्यपि ध्वनि, दिगदिगन्त में फूट गयी है–

मैं वह धनु हूँ की ये पंक्ति हमें जीवन में सब कुछ समय पर छोड देने की सूझ देता है। प्रत्यंचा का टूटना और बाण का स्खलित होना और फिर ध्वनि का  दिगदिगन्त में गूंजायमान होना अपने आप में अलग ध्वन्यार्थ प्रस्तुत करता है । जिसे कवि आगे की पंक्तियों में हमारे सम्मुख रखता है –

प्रलय-स्वर है वह, या है बस

मेरी लज्जाजनक पराजय,

या कि सफलता ! कौन कहेगा

क्या उस में है विधि का आशय !

क्या मेरे कर्मों का संचय

मुझ को चिन्ता छूट गई है–

मैं बस जानूँ, मैं धनु हूँ, जिस

की प्रत्यंचा टूट गई है!

हम अपने जीवन को लेकर अनेक तरह की भ्रान्तियां पाले रखते हैं । कवि हमें इस जय-पराजय के भाव से ना सिर्फ मुक्ति प्रदान करता है ,वरन बिना चिंता किये कर्म पथ पर अग्रसर होने के लिए निश्चिंत भी करता है। अज्ञेय वास्तव में मानव को बहुत ही गहरे स्तर पर जानने और समझने वाले सर्जक हैं । एक ऐसे सर्जक जिन्हें पढकर मन और जीवन को सुकून मिलता है।

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